प्रकृति का अपनापन या जीवन अस्तित्व

प्राण यानी कि प्रकृति के अस्तित्व से जन्मा "जीवन" जो धरती की गोद में अपने अस्तित्व को बड़ा करता है, जिसे वह सब कुछ मिलता है, जो उसकी जरूरत होती है फिर वो जीवन किसी भी रूप में क्यों न हो, अगर माने पौधो में तो उसे वह पोषण मिलता है जिससे वह वृक्ष के रूप में निर्भर "जीवन" यानी कि जीव - जंतु और मनुष्य को दे पाए।

प्रकृति का अपनापन या जीवन अस्तित्व

 अंशुमान शुक्ल "अंश"

पर्यावरण प्रहरी व युवा लेखक

जी बिल्कुल, पर्यावरण के हालातों की चर्चा के साथ पूछेंगे अपनी जिम्मेदारी से अहम फर्ज़  के सवाल ...
                              कि निभा रहें है या नहीं ? 
 
प्राण यानी कि प्रकृति के अस्तित्व से जन्मा "जीवन" जो धरती की गोद में अपने अस्तित्व को बड़ा करता है, जिसे वह सब कुछ मिलता है, जो उसकी जरूरत होती है फिर वो जीवन किसी भी रूप में क्यों न हो, अगर माने पौधो में तो उसे वह पोषण मिलता है जिससे वह वृक्ष के रूप में निर्भर "जीवन" यानी कि जीव - जंतु और मनुष्य को दे पाए।

प्रकृति के गर्भ में वह सब कुछ मिलता है जो सृष्टि की आवश्यकता है, और प्रकृति हमें दोहन करने से मना नही करती, लेकिन ये भी नहीं कहती कि उसका दुरुपयोग हो, जिससे मानवीय मूल्यों की उपेक्षा नही बल्कि अपेक्षा हो और न ही सृष्टि की निरंतर गति में कोई बाधा उत्पन्न हो, जीवन में पर्यावरण उपयोगी है तो उसका संरक्षण हमारी एक जिम्मेदारी है।

हमारी संस्कृति में एक सूत्र के रूप में बहुत अच्छे से मिलता है कि-   
                         सङ्गतं खलु शाश्वतम्।
                            वारि-वायु-व्योम 
                            वह्नि-ज्या-गतम्। 
अर्थात् "प्रकृति और मनुष्य के बीच का संबंध शाश्वत है।" 
 जीवन अगर जीना है तो परस्पर हम उपयोगी बने, मनुष्य अगर प्रकृति का दोहन करता है तो पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए उसका पूर्णतः स्वरूप फिर से बने वो प्रतिबद्धता सिर्फ मनुष्य की है, 
क्योंकि प्रकृति अपना विकास सदैव ही करती है और मनुष्य हमेशा उसका उपयोग व दोहन करता है।
 हमें सोचने की आवश्यकता है कि प्रकृति शुद्ध है, हमें शोध उतना ही करना है जो ज्ञान बन सके, जिससे हम प्रकृति को वापस करने का प्रयास कर पाए।


ना कि ये भूल जाए जो शोधन-संयंत्र से हम कुछ अगर अविष्कार करके दे रहे है, तो हम उसके अधिकारी है। 
हमारी वैदिक संस्कृति कहती है कि - 
              प्रकृतिः पंचभूतानि ग्रहलोकस्वरास्तथा
             दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वंतु मंगलम्‌।
यानी कि - "पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश एवं ग्रह - मंगल, बुध, शुक्र आदि और संगीत के सातों सुर, दसों दिशाएं और भूत, वर्तमान और भविष्य समस्त कालों में सदैव कल्याणकारी हों।"

प्रकृति से मानव का रिश्ता बड़ा अनोखा है साहब,  कभी उसको अपनापन के एहसास से जीने की कोशिश करके देखो... उसको अपना हिस्सा मानो... उसका ख्याल एक नन्हें बच्चे के कोमल रूप के जैसा देखो... आपको अपना अस्तित्व ही नजर ही दिखाई देगा.... 
क्योंकि प्रकृति तब भी थी, जब आप नहीं थे, वो तब भी अपना पोषण, अपना ख्याल रखती थी, जब आप उसका उपभोग कर लेते थे और है, वो अपनी रिक्तता को भरती थी और है.. साहब, उसके लिए जिसमे प्राण है यानी आपके लिए।

प्रकृति हम पर निर्भर नहीं बल्कि इस धरती पर जो जीवन का बीज बोआ जाएगा प्रकृति अपने गर्भ से उसका पालन पोषण करेगी ही।

अगर आज हम विश्व के पटल पर हम अपने देश की बात करते है तो हमें हमेशा याद रहे कि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जो अजन्मा है और इस धरती पर जन्म लेना हमारा सौभाग्य है,
क्योंकि हमारे ऋषि - मनीषी बल्कि हमारे पूर्वज जो  हमारे लिए सजोकर चले गए और हमें विरासत में देकर गए कि - हम भी इस पर ही निर्भर थे, जो तुम भी हो और आने वाली पीढ़ी भी।

 सही मायने में सौभाग्यशाली ही है, जहां प्रकृति हमारा पालन पोषण करती है, तो वहीं भारतीय संस्कृति व वेद- वेदांत उत्तरदायित्व के रूप में कहता है कि - 
                 "माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:"
 इसलिए भूमि पुत्र के नाते अपने दायित्व का बोध कराता है कि प्रकृति का उपयोग और संरक्षण के प्रति नैतिक कर्तव्य है, जो मानवीय सरोकार के अस्तित्व को जन्म देता है, ना कि पाश्चात्य संस्कृति जो प्राकृतिक संसाधनों पर आधिपत्य जमाना, उपभोग करना और दोहन करने वाली सोच और जिसका परिणाम प्रकृति तय करती है और परिणाम होता है प्राकृतिक आपदाओं से होने वाला "विनाश" । 

 दोस्तों अगर हम अपने वर्तमान को एक नन्हें पौधे को जीवन देने का, जल का संरक्षण करने का एवं पर्यावरण को शुद्ध रखने की जिम्मेदारी आज निभा लेंगे तो हम आने वाली पीढ़ी के जीने की चिंता से मुक्त हो जायेंगे जो भविष्य के गर्भ में है।