भगवान कृष्ण से जुड़ा दुर्लभ बरगद का पेड़ रीवा में हो रहा संरक्षित

रीवा के उद्यानिकी परिसर में वन विभाग द्वारा एक दुर्लभ वृक्ष 'कृष्ण बरगद' का संरक्षण किया जा रहा है, जिसकी पत्तियाँ कटोरी और चम्मच जैसी हैं। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण बाल्यकाल में माखन छिपाने के लिए इन पत्तियों का उपयोग करते थे।

भगवान कृष्ण से जुड़ा दुर्लभ बरगद का पेड़ रीवा में हो रहा संरक्षित

रीवा शहर के उद्यानिकी परिसर में एक ऐसा दुर्लभ और विलुप्त प्रजाति का पेड़ संरक्षित किया जा रहा है, जिसका संबंध सीधे भगवान श्रीकृष्ण से बताया जा रहा है। इस पेड़ को कृष्ण बरगद के नाम से जाना जाता है, बता दे भगवान श्रीकृष्ण अपने बाल्यकाल में जब माखन चोरी किया करते थे, तो वह पकड़े जाने से बचने के लिए इस पेड़ की पत्तियों को कटोरी बनाकर उसमें माखन छिपाया करते थे।

कुछ कहानियाँ तो यह भी बताती हैं कि मां यशोदा ने स्वयं कृष्ण को पहली बार इसी वृक्ष की पत्तियों में माखन परोसा था। कहा जाता है कि ईश्वर के इस स्पर्श और उपयोग के कारण इस वृक्ष की पत्तियों का आकार कटोरी और चम्मच जैसा हो गया जो आज भी इस पेड़ की सबसे अनोखी पहचान है।

इस वृक्ष की एक और खासियत इसकी पत्तियों का अद्भुत आकार है। इसके बड़े पत्ते कटोरी जैसे गोलाकार होते हैं, जबकि छोटे पत्ते चम्मच की तरह लंबे और गहरे होते हैं। यह प्राकृतिक विशेषता इसे अन्य किसी भी सामान्य बरगद के पेड़ से अलग बनाती है।

वन विभाग कर रहा संरक्षण का प्रयास

रीवा के वन विभाग द्वारा इस दुर्लभ कृष्ण बरगद को उद्यानिकी परिसर में संरक्षित किया जा रहा है। फिलहाल यह वृक्ष आकार में छोटा है, लेकिन इसे वैज्ञानिक विधियों से बढ़ाकर भविष्य में अन्य स्थानों पर भी रोपण की योजना बनाई जा रही है।

विभाग का उद्देश्य है कि न केवल इस विलुप्त होती प्रजाति को बचाया जाए, बल्कि इसके धार्मिक, सांस्कृतिक और औषधीय महत्व को भी जन-जन तक पहुंचाया जाए।

आयुर्वेद में भी है विशेष स्थान

कृष्ण बरगद केवल धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि आयुर्वेद में भी अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। विशेषज्ञों के अनुसार, इसकी पत्तियों, छाल और दूध जैसे रस का उपयोग कई बीमारियों के इलाज में किया जाता है। यह पाचन क्रिया को सुधारने, रक्त को शुद्ध करने,सर्दी-जुकाम में राहत देने, जन कम करने, और घावों को भरने में अत्यंत उपयोगी माना गया है।

इसके अतिरिक्त इसके दूध का उपयोग प्राकृतिक दर्द निवारक के रूप में भी किया जाता है। दुर्भाग्यवश, विलुप्त होती इस प्रजाति के कारण अब इसके पौधे दुर्लभ हो गए हैं, जिससे आयुर्वेदिक चिकित्सा में इसका उपयोग सीमित हो गया है।

संरक्षण से जुड़े भविष्य के प्रयास

वन विभाग द्वारा किए जा रहे प्रयासों के तहत इस पेड़ को जैव विविधता और धार्मिक पर्यटन के दृष्टिकोण से भी संरक्षित किया जा रहा है। भविष्य में इसकी नर्सरी तैयार कर इसे देशभर के धार्मिक स्थलों, वन क्षेत्रों और आयुर्वेदिक अनुसंधान संस्थानों में वितरित किए जाने की योजना है।